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हरकारा खरगोश (एक लोक कथा)

Last updated on जुलाई 18, 2020

एक गाँव में एक ठग था. बहुत दिनों से बेकार था. गाँव में कोई उसकी ठगाई में आता नहीं था. सोचा, क्यों न गाँव से निकलकर कहीं दूर कोई धंधा किया जाय. एक दिन एक आदमी सड़क पर जा रहा था. उसके हाथ में एक जैसे दो खरगोश थे. बड़े प्यारे लगते थे. ठग के दिमाग में खरगोशों को देखकर कोई ठगी सूझ गयी. उसने उस राहगीर को आवाज दी.

“क्यों भईया, इन खरगोशों को बेचोगे ? ठग ने पुछा.”

“हाँ, अगर तुम लेना चाहो तो मैं बेच दूंगा. बताओ, क्या दोगे ?” राहगीर ने ठग के पास आकर पूछा.

“दे दूंगा चार-छः आने. अगर बेच ही रहे हो तो. ” ठग ने कहा. राहगीर शायद जरूरतमंद था. उसने खरगोश ठग को पकड़ा दिए और पैसे लेकर चला गया. ठग अपने घर आया. अपनी पत्नी से बोला- “देखो, कल सुबह घर से निकल जाऊँगा. शाम तक लौटूंगा. तुम कम-से-कम चार-पांच जनों के लिए पूड़ी-कचौड़ी बनाकर रखना. और हाँ, यह एक खरगोश मैं चाकी के पात से बाँध कर जा रहा हूँ उसको दानापानी देना. एक खरगोश मैं साथ लिए जा रहा हूँ.”

अगले दिन सवेरे वह घर से निकल गया. कोस-दर-कोस मंजिल पार करके वह गाँव से दूर निकल गया. एक पेड़  के साए में वह बैठ गया. खरगोश भी उसने अपने पास ही बाँध लिया.

चार राहगीर वहां से निकल रहे थे. पेड़ के साए में एक आदमी को देखकर वे सब के सब उसी के पास आ गए. राम-राम, दुआ-सलाम के बाद वे सब इकट्ठे बैठ गए. बातचीत शुरू हो गयी. ठग के पूछने पर उन चारों ने बताया कि पास के गाँव चंदनपुर के रहने वाले हैं. यहाँ ठंढी छांह और एक चीलम तम्बाकू के लिए रुक गए.

जैसे ही उन्होंने कहा कि वो चंदनपुर के रहने वाले हैं, ठग बोला, “अरे वहां तो कई ठाकुरों से मेरा दोस्ताना है. वे कई बार मेरे घर भी आये हैं. भई वाह, अब हम तुम्हें नहीं जाने देंगे. आज तो मेरे घर ही रुकना. चलो, अभी चलते हैं. दिन छिपने से पहले ही हम घर पहुँच जायेंगे. खाना भी तैयार मिलेगा.”

“खाना तैयार मिलेगा?” उन चारों ने आश्चर्य से कहा. “तुम्हारे घर किसी को क्या पता कि चार मेहमान आने वाले है.”

“नहीं पता तो खबर पहुँचने में क्या देर लगती है. हम पहुँच नहीं पायेंगे, तब तक खाना तैयार होगा.” ठग ने उत्साह से कहा. उसने खरगोश की रस्सी खोली और एक संथी मार कर बोला- “जा, जल्दी से घर जाकर कहना कि चार आदमियों का खाना बनाकर रखें.” और खरगोश को भगा दिया. खरगोश जो वहां से भागा तो इधर-उधर दौड़ता हुआ झाड़ियों में गायब हो गया.

वे सब लोग घर आये. ठग ने उनके हाथ धुलाये और कहा- “चलो खाना खा लो.”

वे सब हैरान. वास्तव में उनके आने से पहले खाना तैयार हो गया था. तभी उन्होंने देखा, वही खरगोश चाकी के पात से बंधा हुआ है. वे लोग खाना तो खा रहे थे, पर नजर उनकी खरगोश पर ही थी.

सवेरे जब वो चलने को तैयार हुए तो बोले- “भाई साहब, एक चीज़ तो आप हमें दे दो.”

“ऐसी क्या चीज़ है जो तुम्हें पसंद आ गयी?” वह ठग मन ही मन खुश हो रहा था कि वह अपनी थगीए में कामयाब हो रहा है.

“ये जो हरकारा है, तुम्हारा खरगोश, यही हमें चाहिए.” राहगीर बोले.

“न भईया, न. इससे तो हमारा बहुत काम चलता है.इतनी दूर मेरे खेत हैं. खबर लाना और ले जाना, इसी के ऊपर है. इसे तो मैं किसी भी कीमत पर नहीं दूंगा.” काफी कहने-सूनने के बाद सौ रुपये में खरगोश का सौदा तय हो गया. उन लोगों के पास कुल मिलकर भी सौ से दो-चार रुपये कम ही निकले. वे खरगोश को साथ ले गए. जब अपने गाँव से करीब कोस भर दूर रहे होंगे तो उन्होंने खरगोश के गले की रस्सी खोलते हुए एक संठी मारकर कहा, “जा, हम सब के घर जाकर कहना कि जल्दी से खाना बनाकर रखें, हम आ रहें हैं.” खरगोश भागकर झाड़ियों में खो गया.

वे लोग शान से हाथ हिलाते हुए अपने-अपने घर गए और बोले- “लाओ, खाना.”

“खाना ?” उनकी पत्नियां बोलीं , “तुमने हमें चिट्ठी लिख दी थी क्या कि हम आ रहें हैं?”

“तो खरगोश न याकर नहीं कहा?” वे सब हैरान थे कि खरगोश अभी तक क्यों नहीं पहुंचा. सब लोग उनकी बेवकूफी पर हंस रहे थे- “क्या खरगोश भी कभी संदेसा पहुंचाता है ?”

इन चारों ने सोचा – ” चलो, उससे चल कर पूछते हैं की तुमने हमारे साथ धोखा क्यों किया.”

इधर वह ठग भी ठगी की कोई योजना बना रहा था. इतने में वो चारों भी आ गए. बोले- “तुमने हमारे साथ धोखा किया. वह खरगोश तो आज तक हमारे घर नहीं पहुंचा.”

वह ठग हंसा. बोला- “तुम कितने बेवकूफ हो . अरे, तुमने खरगोश को पहले अपना घर भी दिखाया था ?”

अब वे चारों चुप थे. वास्तव में उन्होंने अपना घर खरगोश को नहीं दिखाया था. वह जाता कहाँ ? वह ठग बोला- “खैर , अब रात को यहीं रुको. मैं खाना बनवाता हूँ.”

उन लोगों को बाहर वाले कमरे में छोड़कर वह अन्दर के कमरे में पत्नी से जाकर बोला- “चार जनों का खाना बनाओ.”

घरवाली जोर से बोली, ताकि बाहर बैठे वो लोग भी सुन लें – “मुझसे नहीं होती तुम्हारी ये गुलामी. अभी सात आदमियों का खाना बना चुकी हूँ. मुझसे नहीं बनता.”

उतनी ही जोर से ठग चीखा – “मैं अभी तुझे जान से मारता हूँ. देखूं तू कैसे खाना नहीं बनायेगी. ” और उसने लाठी से गद्दे तकिये पीटना शुरू कर दिए. उसकी घर वाली भी बनावटी तौर पर रोटी-पीटती रही. फिर एक जोर की चीख मारकर चुप हो गयी. वे लोग जो बाहर बैठे ये सब सुन रहे थे, अन्दर भागे. देखा, उसकी घर वाली आँखे बंद किये पडी है. वे बोले- “क्या हुआ ?”

“हुआ क्या, मैंने इसे मार डाला.” ठग खुश होता हुआ बोला. “अब यह ढंग से काम करेगी. जब तक महीने में दो-चार बार इसे जान से नहीं मार डालता, तब तक यह ठीक काम नहीं करती.”

वे चारों अचरज में पद गए. बोले- “तो मार कर तुम इसे जिन्दा भी कर लेते हो ?”

“यह कौन सी बड़ी बात है ? अभी लो, तुम्हारे सामने ही इसे जिन्दा करता हूँ.” ठग ने एक बोतल निकाली, और एक बड़ी अच्छी सी संठी. उसने संठी को गंगाजल से धोया और औरत की नाक से लगा दिया. जैसे ही लकड़ी उसकी नाक से लगी, औरत राम-राम करके उठ बैठी. फ़ौरन ही उसने उन सब के लिए खाना बनाया.

वे चारों जब चलने लगे, तो बोले- “भैया, हमारी औरतें भी हमारा कहा नहीं मानतीं. तुम हमें यह संठी दे दो. हम तुम्हे मुह माँगी रकम देंगे.”

अंत में उस लकड़ी का चार सौ रुपये में सौदा हो गया. वे लोग अकड़कर घर आये और घरवालियों से बोले- “अब तुम्हे जान से मारकर काम लिया करेंगे.” जैसे ही उनकी घरवालियों ने आनाकानी की, वे लाठियां लेकर पिल पड़े और तब तक मारते रहे जब तक वे सचमुच मर ही नहीं गयीं. जब देखा की वे वास्तव में मर गयीं, कहीं सांस बाकी नहीं है, तब एक-एक करके सबने वह संठी सुंघाई. पर कोई भी नहीं उठी. उन्हें वैसे ही छोड़कर वे उस ठग के गाँव भागे गए की पूछें, यह संठी काम क्यों नहीं करती ?

ठग ने कहा- “तुमने संठी सुंघाने से पहले उसे गंगाजल से धोया था ?”

चारों बोले- “बस, यही चूक हो गयीए हमसे. तुम्हारे पास गंगाजल हो तो हमें दे दो.”

ठग ने उन्हें पानी से भरी शीशी पकड़ा दी. वे अपने-अपने घर आये. देखा, उनकी लाशें वहां नहीं थीं. पूछने पर लोगों ने कहा – “तुम तो उन्हें मारकर भाग गए. लाशें क्या यहीं पडी-पडी सदतीं. हम सबने मिलकर उनका डाह-संस्कार कर दिया.”

वे चारों अपनी बेवकूफी पर पछताते रह गए….