Last updated on फ़रवरी 3, 2021
मुंशी प्रेमचंद (३१ जुलाई १८८० – ८ अक्तूबर १९३६) को भारतीय साहित्य जगत में कोहिनूर की उपाधि दी जाये तो ये कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मुंशी प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम अजायबराय था। इनके पिता जी उस समय लमही में ही डाकमुंशी थे। मुंशी प्रेमचंद का शुरुआती अध्ययन फ़ारसी भाषा में हुआ था। मात्र ७ साल के उम्र में ही उनकी माता का देहांत हो गया था। १५ साल की उम्र में उनकी शादी हो गयी। और १६ साल की उम्र में उनके पिता का भी स्वर्गवास हो गया।
इन कारणों से मुंशी प्रेमचंद का शुरुआती जीवन काफी संघर्षमय रहा। उनका विवाह भी जो कि उन दिनों की परंपरा के अनुसार मात्र १५ साल की उम्र में हुआ था, सफल नहीं रहा। बाद में १९०६ में दूसरा विवाह बाल-विधवा शिवरानी देवी से हुआ। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।
अब मात्र १६ साल की उम्र में ही मुंशी प्रेमचंद को जीवन के कई कड़वे अनुभवों का सामना करना पड़ा था- जैसे कि बचपन में शादी, कर्म-कांड, किसानों का दुखी जीवन इत्यादि इत्यादि। इन्ही अनुभवों की गहराई ही इनके लेखन और उपन्यासों को वास्तविक और जीवंत बना देती है।
१३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से अपने आपको भली-भांति रूबरू किया। १८९८ में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। जिसके बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक के तौर पर नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। १९१० में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास विषयों से इंटरमीडिएट उत्तीर्ण किया और १९१९ में अंग्रेज़ी, फ़ारसी और इतिहास विषयों को लेकर बी. ए. भी उत्तीर्ण किया।
१९१९ में बी.ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।
१९२१ में महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये असहयोग आंदोलन के अंतर्गत किये गये आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से २३ जून को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया जिसमें उनकी रूचि भी थी। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। पर यह उनके लिए घाटे का सौदा सिद्ध हुआ।
१९३३ में उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बाद में फिल्म नगरी उन्हें रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबंध भी पूरा नहीं कर सके और बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया।