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पृथ्वी का निर्माण (एक लोक कथा)

Last updated on जुलाई 18, 2020

युगों पुरानी बात है. न धरती थी, न आकाश था. जल भी नहीं था. केवल एक निराकार थे. उन्हें कोई काम नहीं था. दिन भर बैठे रहते. न कोई काम न धाम. जी भी नहीं लगता था उनका. सोचते रहते, क्या करें क्या न करें. तभी उन्हें कुछ सूझा. उन्होंने अपनी दायीं बगल मलनी शुरू कर दी. गर्मी पैदा हुई, पसीना झलकने लगा और पसीने की एक बूँद गिरकर फड़कने लगी. निरंकार उसे ध्यान से देखते रहे. उनके देखते – देखते वह एक गरुड़ी बन गयी. वह फड़फडाई और दूर आकाश में उड़ गयी.

वह उडती रही, उडती रही. काफी समय तक उड़ते – उड़ते वह अकेलेपन से उकता गयी. सुए अच्छा नहीं लगता था. फिर निरंकार के पास वापस आयी. बहुत उदास, रोनी सूरत लिए. वह अकेले जीवन से निराश हो चुकी थी. निरंकार भी परेशान थे. वह सोचते थे, मैं अब थक गया हूँ और कोई मेरी सेवा करने वाला नहीं है. क्यों न एक स्त्री और पुरुस बनाया जाय. पहले उन्होंने गरुड़ी को जन्म दिया था. इसके आगे वह सोच नहीं पा रहे थे. तभी उन्होंने देखा, गरुड़ी उनके सामने बैठी है. उन्होंने गरुड़ी से प्रश्न किया – “उदास हो ? क्या चाहिए तुम्हें ?”
“महाराज मैं अकेली रहते – रहते परेशान हो गयी हूँ. मुझे बहुत बुरा लगता है. यदि आप मेरे लिए कोई अच्छा सा साथी ढूंढ दें, तो बड़ी कृपा होगी.” गरुड़ी ने आँखों में आंसू भरकर कहा.
निरंकार ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा और अपनी बाईं बगल मलने लगे. फिर एक पसीने की बूँद टपकी. कुछ देर वे उसे ध्यान से देखते रहे. उनके देखते – देखते वह गरुड़ के रूप में परिवर्तित हो गयी. कुछ देर में वह भी शून्य में उड़ गया. कभी पूरब में तो कभी पश्चिम में, कभी उत्तर में तो कभी दक्षिण में. वर्षो वह गरुड़ उड़ता रहा. गरुड़ी को उसका पता नहीं चल पाया. वह फिर अकेली रह गयी. वह फिर अपने जन्मदाता के पास जाना चाहती थी. लेकिन उसकी हिम्मत नहीं होती थी. उसे गरुड़ पर भी क्रोध आता. वह उसे छोड़कर क्यों चला गया और कहा चला गया ? उसे अपने साथ क्यों नहीं ले गया ?
एक दिन गरुड़ लौटकर आ गया. इतने दिनों में उसका शरीर काफी सुन्दर और गठीला हो गया था. उसे देखकर गारुड़ी का मोह और बढ़ गया.
एक दिन गरुड़ ने कहा – “मैं भी अकेला, तू भी अकेली. क्यों न हम आपस में विवाह कर लें .” गरुड़ी भी यही चाहती थी. लेकिन वह उससे नाराज थी और उसे इसका दंड देना चाहती थी. उसने कहा, “कैसी बातें करते हो ? हम दोनों का जन्मदाता एक ही है. इस रिश्ते से हम दोनों भाई – बहन हैं. हमारा विवाह असंभव है.” गरुड़ ने बहुत समझाया. अनुनय – विनय की. लेकिन सब बेकार. गरुड़ी अपनी जिद पर थी. गरुड़ अकेलापन बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. वह दिन – रात रोता रहता. कई दिन हो गए थे उसे रोते – रोते. उसने प्रण किया कि वह अब गरुड़ी के पास कभी नाहे जाएगा.
गरुड़ की ऐसी हालत देखकर गरुड़ी भी बहुत दुखी थी. वह अब उसके पास जाए तो किस मुंह से. कौन – सा रास्ता निकाले कि गरुड़ी उसके पास जा सके. जब उससे अधिक बर्दाश्त न हुआ तो गरुड़ की आखों से गिरे आसुओं को वह चुन – चुन कर पी गयी. वे आंसू उसके गर्भ में चले गए.
अपनी ऐसी दशा देखकर वह गरुड़ के पास जाने को तैयार हुई. लेकिन गरुड़ का कहीं पता नहीं था. वह जाने कब और कहा चला गया. वह परेशान हो गयी. अब क्या करे. अंत में एक मुद्दत बाद वह उसे मिल गया. गरुड़ी की आखों में खुशी के आसूं आ गए. वह बहु रोई. फिर उसने गरुड़ से प्रार्थना की कि वह एक घर बना दी, ताकि वह उसमे अंडे दे सके.
इस पर गरुड़ अकड़ गया. “तूने कौन – सा मेरा कहना माना था, जो मैं तेरा कहा मानूं ?” जा जिसने तुझे पैदा किया है उसी से कहना. मैंने कितना तुझे मनाया था, कितनी खुशामद की थी. लेकिन तू नहीं पिघली थी. इसी का तो बदला अब मुझे लेना है.”
इस पर गरुड़ी और भी रोई. “मुझसे कितने ही बदले ले लेना. कितना ही दुःख दे लेना, लेकिन इस समय एक घर की बहुत आवश्यकता है.”
गरुड़ का ह्रदय पसीज गया. घर तो वह कहाँ बनाता. कोई स्थान ही नहीं था. इस समय न धरती थी, न आकाश था. जल भी नहीं था. सब शून्य ही था. घर बनाता तो कहा बनाता. उसने गारुड़ी से कहा – “देखो, मुझे कोई स्थान दिखाई नहीं दी रहा है. तुम्हीं बताओ, घर कहाँ बनाऊं.” गारुड़ी भी चुप. वास्तव में कोई स्थान नहीं था. दोनों ही विचारों में खो गए. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था.
अचानक गरुड़ के दिमाग में एक विचार आया. वह खुश होकर बोला – “सुनो, मैं अपने पंख फैला देता हूँ. तुम उनपर अंडे दे दो.”
गारुड़ी को यह प्रस्ताव बड़ा अजीब सा लगा. यह तो कोई उपयुक्त जगह नहीं है अंडे देने के लिए. काफी समय इसी सोच विचार में लग गया. इसी बीच में अंडा शून्य में गिरकर दो हिस्सों में विभाजित हो गया. गारुड़ी तो रो उठी. यह क्या अनर्थ हो गया. लेकिन तभी गरुड़ और गरुड़ी ने देखा. अंडे का एक भाग जो ऊपर की ओर था, आकाश बन गया और नीचे का वायुमंडल बन गया. सफेदी वाला हिस्सा समुद्र बना और पीला भाग धरती बन गया.
इस तरह उस युग में धरती, आकाश और जल की उत्पत्ति हुई.