Last updated on जून 23, 2021
जन्म : २३ जनवरी १८९७ कटक, उड़ीसा, भारत।
मृत्यु : १८ अगस्त, १९४५ जापान।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म २३ जनवरी १८९७ को ओड़िशा के कटक में एक हिन्दू कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री जानकीनाथ बोस और माँ का नाम श्रीमती प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के एक जाने -माने वकील थे। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के कुल 7 भाई और 6 बहनें थी। जिसमें कि नेताजी अपनी माता -पिता की ९वीं संतान थे। कहते हैं कि अपने सभी भाइयों में से सुभाष चंद्र बोसे को सबसे अधिक लगाव अपने भाई शरद चन्द्र से था।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस, ये नाम सुनते ही भारत के किसी भी कोने में हिमालय से हिन्द महासागर तक प्रवास करने वाला बच्चा हो, या बूढ़ा, स्त्री हो या पुरुष उसके ह्रदय में नेता जी के लिए सम्मान और गर्व का सागर उमड़ने लगता है। यह सत्य है कि नेता जी को जो सम्मान भारत में मिलना चाहिए था, जिसके वो अधिकारी थे, वो आज़ादी के इतने वर्षों बाद तक उन्हें नहीं मिला। लेकिन आज भी बुजुर्ग हों या नयी पीढ़ी के युवा सभी ना केवल नेता जी को याद रखे हुए हैं बल्कि वो उनको आदर्श मानते हैं। परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश की सरकारों और नेताओं ने ना ही उनको उचित सम्मान दिया और ना ही उनको इतिहास की किताबों में उचित स्थान। हमारे देश की पाठ्य पुस्तकों में भी नेता जी के बारे में कुछ खास सम्मिलित नहीं किया गया, जिससे कि आने वाली पीढ़ियाँ अपने इस महान नायक, भारत माँ के वीर सपूत के बारे में न केवल जान सकें बल्कि प्रेरणा भी ले सकें। हाँ, खानापूर्ति के लिए १ – २ परिच्छेद (पैराग्राफ) जरूर सम्मिलित किये गए हैं। भारत को स्वतंत्र कराने के लिए किये गए उनके संघर्ष और भारतीय इतिहास में मिले नगण्य स्थान को देखकर कोई साधारण व्यक्ति भी यह अनुमान लगा लेगा की नेता जी को जानबूझ कर इतिहास से मिटाने का प्रयास किया गया।
परन्तु ऐसा क्या है कि नेता जी की विरासत को मिटाने के लिए और देश के जन-मानस से नेता जी को विस्मृत करने के इतने प्रयासों के बाद भी नेता जी आज भी लोगों की यादों में बसते हैं। नेता जी को शहर में रहने वाले पढ़े-लिखे सभ्रांत लोग भी सम्मान करते हैं, तो देश के किसी दूर-दराज के कोने में रहने वाला किसी गांव का निवासी भी, चाहे वह पढ़ा लिखा हो या अनपढ़। ऐसा इसलिए कि जब कोई व्यक्ति अपना सर्वस्व लोक कल्याण को समर्पित कर देता है और अपने आप को धर्म, सत्य और मातृभूमि पर न्योछावर कर देता है, तो उसका जीवन लोगों की लोकोक्तियों में शामिल हो जाता है। ऐसा इससे पहले भी होता रहा है, चाहे वह महाराणा प्रताप हों, या छत्रपति शिवाजी महाराज। इतिहास के पाठ्य पुष्तकों में भले ही सरकारों ने नेताजी को मिटा दिया हो, पर जन-मानष में इनको कोई नहीं मिटा सकता, इनकी कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाएँगी। हमारे देश नायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी इन्हीं महापुरुषों की श्रेणी में आते हैं।
नेताजी के जीवन पर स्वामी विवेकानंद जी का और अरविन्द घोष जी का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था, इसी से प्रेरित होकर उन्होंने आईसीएस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था क्योंकि वे अंग्रेजों की नौकरी नहीं करना चाहते थे, और स्वतंत्रता की लड़ाई में गाँधी जी के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए और कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव भी जीता। पर नेहरू जी की ईर्ष्या और गाँधी जी के विरोध के कारण कांग्रेस ने एक चुने हुए अध्यक्ष (नेताजी) को काम नहीं करने दिया, जिसके परिणाम स्वरूप दुःखी हो कर नेताजी ने इस्तीफा दे दिया, और उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया, और वे अंग्रेज़ों को देश से निकालने के अन्य विकल्पों की तलाश में जुट गए।
उसी समय विश्वयुद्ध शुरू हो गया और नेताजी ने इस अवसर का लाभ उठाने के लिए, अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए जापान से लेकर जर्मनी तक की यात्राएँ की और हिटलर से मिलकर सहायता भी मांगी। कई साल पहले हिटलर ने “माईन काम्फ” नामक किताब (आत्मकथा) लिखी थी। इस किताब में हिटलर ने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर नेताजी ने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और “माईन काम्फ” के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन भी दिया। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी, अतः उसने नेताजी को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
आज़ाद हिन्द फ़ौज की कमान सँभालने के बाद उन्होंने “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा” का आह्वाहन किया और “दिल्ली चलो” का नारा दिया, जिससे अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गयी थीं।
कांग्रेस में जो उनका अपमान हुआ, गाँधी जी और नेहरू जी ने उनके साथ जो अपमान जनक व्यहार किया था, उन्होंने सब भूलकर देश-हित में एकता बनाये रखने के लिए देश की आज़ादी की जंग में गाँधी जी से आशीर्वाद माँगा और कहा –
“मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।”
उनके ये शब्द उनकी अपनी मातृभूमि से प्रेम और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी हद से गुजर जाने के परिचायक हैं।
लेकिन इसके बाद नेहरू जी ने आसाम में जा कर नेताजी के खिलाफ ही लाखों की फौज को लेकर अंग्रेज़ों के साथ मिलकर नेताजी को रोकने का भाषण दिया। जो नेहरू और कांग्रेस अहिंसा के पुजारी थे, भारत देश को गुलाम बना कर शताब्दियों तक भारतवासियों पर अत्याचार करने वाले अंग्रेज़ों के कृत्य को तो “हिंसा नहीं करना” कहते थे, अपितु समय-समय पर उनकी मदद को भी तैयार रहते थे, वही नेहरू और कांग्रेस अपना अहिंसा का रास्ता छोड़ कर, हाथों में बन्दूक और तोप के गोले लेकर आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के सैनिकों और नेताजी को मारने के लिए तैयार थे। इससे क्रूर हिंसा का रूप कहाँ देखने को मिलेगा। जो आज़ाद हिन्द फौज अपने देश को आज़ाद कराने के लिए लड़ रही थी उसी समय नेहरू जी(अहिंसा का सिपाही) अंग्रेज़ों की सत्ता हिंदुस्तान में बचाने के लिए हाथ में बन्दूक लेकर स्वतंत्रता के सिपाहियों को रोकने के लिए लाखों की फौज लेकर लड़ने जाना चाहते थे ।
नेताजी को शुरुआत में ही काफी सफलता हासिल हो गई, अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। ये द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को “शहीद द्वीप” और “स्वराज द्वीप” का नया नाम दिया, पर जापान की हार के साथ ही उनको सहयोग मिलना बंद हो गया और हमें स्वतंत्रता मिलते-मिलते रह गई ।
नेताजी ने आज़ाद भारत की पहली सरकार बनाई और वो स्वतंत्र भारत सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री थे और इस सरकार के बैंक का नाम “द आज़ाद हिन्द बैंक” था।
नेताजी की मौत की अफवाह फैली कि हवाई दुर्घटना में मारे गए, कुछ लोग मानते हैं कि वो जिन्दा थे और उन्होंने संन्यास ले लिया, कोई उन्हें गुमनामी बाबा बताता तो कोई कुछ और, कुछ लोग मानते कि वो वापस आयंगे। परन्तु एक बात अवश्य सत्य है कि नेताजी आज भी जिन्दा हैं, हमारे और आपके मन में, हृदय में और हमेशा जिन्दा रहेंगे। हमारी आने वाली पीढ़ियों के बीच, चाहे सरकारें उन्हें पाठ्य पुस्तकों में शामिल करें या ना करें, वो जिन्दा रहेंगे।
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