Last updated on मार्च 29, 2021
जन्म: ३१ मई १७२५ अहमदनगर, महाराष्ट्र।
मृत्यु: १३ अगस्त १७९५।
देवी अहिल्याबाई होल्कर का जन्म ३१ मई १७२५ को महाराष्ट्र के अहमदनगर के चौड़ी ग्राम में मन्कोजी राव शिंदे की पुत्री के रूप में हुआ था। उनके पिता उस ग्राम के पाटिल थे। ‘पाटिल’ ग्राम रक्षक को कहा जाता था। इनके पिता धांगर(धनगर) समाज से थे। इनके पिता ने इन्हें पढ़ने-लिखने का उचित अवसर दिया एवं शिक्षा दिलाई, जो कि उस समय लड़कियों के लिए सामान्य नहीं था।
प्रसिद्ध मल्हार राव होल्कर जो कि इंदौर के शासक थे, उनके पुत्र खण्डे राव होल्कर के साथ अहिल्याबाई का विवाह 10 वर्ष की आयु में हो गया। इनके पति खण्डे राव होल्कर की मृत्यु १७५४ ईस्वी में राजस्थान के कुंभेर युद्ध में हो गई। उस समय इनकी उम्र मात्र २९ वर्ष थी। पति की मृत्यु के बाद वह सती होना चाहती थीं, परंतु अपने ससुर मल्हार राव होल्कर के बहुत समझाने पर उन्होंने सती होने का विचार त्याग दिया। १२ साल बाद ससुर मल्हार राव होल्कर की भी मृत्यु हो गई। फिर जब वो ४२ वर्ष की थीं, तभी पुत्र मालेराव होल्कर का भी देहांत हो गया। मल्हार राव होल्कर की मृत्यु के एक वर्ष बाद १७६७ में मालवा साम्राज्य की महारानी बनीं। इनकी एक एक पुत्री भी थी, जिसका नाम मुक्ताबाई था। मुक्ताबाई अपने पति के देहांत के बाद सती हो गईं।
अहिल्याबाई के ससुर मल्हार राव होल्कर ने ही इन्हें राजकाज की शिक्षा दी थी। उस समय पूना में पेशवा की पकड़ मराठा साम्राज्य पर कमजोर हो चुकी थी। इस समय क्षेत्रीय सरदार जैसे कि इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड, नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया मजबूत हो रहे थे। ये सभी मराठा साम्राज्य के ही हिस्से थे।
इनके सत्ता संभालते ही सबसे बड़ी समस्या इन के साम्राज्य में होने वाली लूटमार थी, जो कि राज्य के पश्चिमी सीमा प्रांत से होती थी। इन्होंने इस समस्या का निवारण किया और कई सैन्य अभियान चलाया। इनमें से कई अभियानों का इन्होंने स्वयं नेतृत्व भी किया। इन्होंने अपनी नई राजधानी महेश्वर बनाई जो कि नर्मदा नदी के किनारे बसा प्राचीन नगर था। इनके द्वारा बनवाया गया विशाल किला आज भी वहां स्थित है।
महारानी अहिल्याबाई के राज्य की राजधानी राजनीतिक रूप से महेश्वर थी, परन्तु वाणिज्यिक राजधानी के रूप में इंदौर ने काफी प्रगति की और एक व्यावसायिक केंद्र बनकर उभरा।
उन्होंने परम्परागत व्यवस्था से हट कर दो अति महत्वपूर्ण बदलाव किये, जो कि अपने समय में बहुत ही महत्त्वपूर्ण थे। प्रथम, तो उन्होंने अपने राज परिवार से इतर तुकोजी होल्कर को सैन्य प्रमुख बनाया और स्वयं गद्दी संभालते हुए राज व्यवस्था संभाली। द्वितीय, ये कि राज परिवार के व्यक्तिगत व्यय को राजकोष के व्यय से अलग किया। इससे उनके और राज परिवार का खर्चा अब राजकोष से न लेकर इनके व्यक्तिगत धन-संपत्ति से चलता था। ये उस समय के बहुत ही लोक हितकारी और आदर्श बदलाव थे। इस बात का वर्णन तत्कालीन ब्रिटिश एजेंट जान मैक्लाम ने अपनी पुस्तक में किया है, जो कि मैक्लाम की मृत्यु के पश्चात १८८० में छपी।
महारानी अहिल्याबाई बुद्धिमान, कुशल राजनीतिज्ञ और स्वस्फूर्त शासक थीं। उनका सारा जीवन प्रजा व लोक कल्याण में ही बीता। उनके शासन के कालखण्ड (१७६७ से १७९५) में उन्होंने कई काम किये, जो आज भी आदर्श के रूप में स्थापित हैं, चाहे वो एक शासक के रूप में हो, या एक व्यक्ति के रूप में। उन्होंने अपने साम्राज्य को समृद्ध बनाया, राजकोष से कई किले बनवाये, आम जनता के लिए अपने राज्य के साथ-साथ पूरे भारतवर्ष में विश्राम गृह, कुँए, बावड़ी, तालाब और सड़कें बनवाईं। पूरे भारतवर्ष में पुराने मंदिरों को जीर्णोद्धार करवाया। नये मंदिर बनवाए और मुगलों द्वारा तोड़े गए मंदिरों को पुनः स्थापित किये।
पूरे भारतवर्ष में उन्होंने मंदिरों को दान दिया, मंदिर, लोक कल्याण और कई उपयोगी निर्माण भी करवाये। भारतवर्ष का ऐसा कोई कोना नहीं, जहां उनके द्वारा कोई निर्माण ना हुआ हो।
कलकत्ता से वाराणसी तक सड़क, वाराणसी में अन्नपूर्णा मंदिर, गया में विष्णु मंदिर इनके द्वारा ही बनवाए हुए हैं। औरंगजेब द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर तोड़े जाने के बाद जो आज मंदिर हैं, वो इन्हीं के द्वारा बनवाएं हुए हैं। सोमनाथ मंदिर के निर्माण में भी इन्होनें सहयोग दिया।
इन्होंने अयोध्या, मथुरा, काशी, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, जगन्नाथपुरी और रामेश्वरम में भी निर्माण करवाये। वाराणसी में कई घाटों के निर्माण करवाये एवं धर्मशालाएं बनवायीं।
महारानी एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं, इस बात का पता इससे चलता है कि उन्होंने अंग्रेजों से पूना के पेशवा को सावधान किया। इनके पास एक स्त्रियों की सेना भी थी। एक बार पेशवा ने इनके राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इन्होंने पेशवा को पत्र लिखा और कहा कि अगर आप युद्ध करते हैं और जीत जाते हैं, तो लोग कहेंगे कि जीते भी तो स्त्रियों से युद्ध में, और अगर हार जाते हैं तो लोग कहेंगे कि स्त्रियों से हार गए, दोनों ही स्थिति में आप की जगहंसायी ही होगी। यह जानकर पेशवा ने युद्ध का विचार त्याग दिया। इन्होंने उत्तर उत्तर भारत के राजनीतिक वर्चस्व के संघर्ष में सिंधिया का समर्थन किया और इससे इनके राज्य में शांति स्थापित हुई। यह सारी बातें उनके कुशल राजनीतिज्ञ होने का ही प्रमाण हैं।
इन्होंने अपने ३० वर्ष के शासनकाल में जो लोक हितकारी और धर्म के कार्य किये। ऐसे कार्य इस आधुनिक काल में कोई और नहीं कर सका।
सन्न १७९५ में ७० वर्ष की आयु में इन्होनें इस लोक को त्याग दिया। अपने जीवन काल में ही इन्हें जनता ‘देवी’ समझने लगी और कहने भी लगी थी। अनेकों बार लोग निजामशाही एवं पेशवाशाही शासन को छोड़कर या अन्य राज्य के निवासी इनके राज्य में आकर बसते थे या बसना चाहते थे।
लोकमाता देवी अहिल्या बाई का मानना था कि, प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है।
महारानी देवी अहिल्याबाई को मेरी कलम का शत-शत प्रणाम।